तलीमेरेन अओ : ओलिंपिक में भारतीय फुटबॉल टीम के पहले कप्तान और नागा आदिवासी समुदाय के प्रथम डॉक्टर

डॉ. तलीमेरेन अओ

ओलिंपिक में भारतीय फुटबॉल टीम का पहला कप्तान भी आदिवासी था। वह एक विलक्षण खिलाड़ी थे; एक स्ट्राइकर, रक्षात्मक मिडफ़ील्डर, गोलकीपर और एक शानदार डिफेंडर।

लंदन ओलिंपिक-1948 में भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान भी आदिवासी थे। तत्कालीन भारतीय फुटबॉल टीम के कप्तान नगालैंड के ‘अओ’ नागा आदिवासी समुदाय से थे और उनका नाम ‘तलीमेरन अओ’ था, जिन्हें संक्षेप में लोग टी. अओ कहते थे। ‘टी. अओ’ का जन्म चांगकी, नगालैंड में 28 जनवरी 1918 को हुआ था। वे परिवार में बारह भाई-बहन थे। उनका बचपन मोकोचुंग में बीता। यहीं छह साल की उम्र में फुटबॉल के प्रति शौक पैदा हुआ। स्कूल से आने के बाद बेकार कपड़ों के चिथड़ों को मजबूती से बांधकर बने गोले से घंटों साथियों के संग फुटबॉल खेला करते थे।

लंबी कूद में राष्ट्रीय रिकॉर्ड

तलीमेरेन अओ शायद एक पैदाइशी एथलीट थे। एक एथलीट और फुटबॉलर के रूप में एओ की असाधारण योग्यता जोरहाट मिशन स्कूल और फिर गुवाहाटी के प्रसिद्ध कॉटन कॉलेज में उनके दिनों के दौरान देखी गई। अओ ने एक कॉलेज मीट में 23 फीट (7.01 मीटर) लंबी छलांग लगाई – जो कई वर्षों तक अनौपचारिक राष्ट्रीय रिकॉर्ड के रूप में रहा। वो एक असाधारण वॉलीबॉल खिलाड़ी भी थे, लेकिन फुटबॉल में अओ सबसे ज्यादा चमके थे। वास्तव में वो एथलेटिक्स में इतने ट्रॉफी और पदक जीतते थे कि चांगकी में अपने पैतृक घर तक ट्रेक के दौरान उन्हें ऊपर ले जाना एक बड़ा कार्य था। तालीमेरेन एओ दोस्तों के बीच अपनी ट्राफियां वितरित करते थे और केवल अपने पदक और प्रमाण पत्र घर ले जाते थे!

कॉटन कॉलेज

आगे की पढ़ाई के लिए जोरहाट गये। वहीं 1933 में एक प्रतियोगिता में उनके फुटबॉल खेलने की प्रतिभा को लोगों ने पहचाना और उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। जोरहाट से आगे की पढ़ाई के लिए गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज गये। वहां भी फुटबॉल के अलावा अन्य खेलों में भाग लेकर पुरस्कार जीतने लगे। गुवाहाटी में उन्हें महाराणा क्लब से फुटबॉल खेलने का अवसर मिला। हालाँकि वो स्कूल और कॉलेज में एक स्ट्राइकर के रूप में खेलते थे, लेकिन क्लब में उनके कार्यकाल के दौरान उन्हें एक रक्षात्मक मिडफ़ील्डर में बदल दिया गया था। अओ अपने कैरियर के बाकी हिस्सों में एक डिफेंडर के रूप में शानदार प्रदर्शन करने के लिए बेकरार थे।

सच्चा खिलाड़ी और एक शानदार प्रतियोगी

अओ के शुरुआती दिनों का सबसे दिलचस्प पहलू वो था, जब 1938 में एक स्थानीय क्लब के खिलाफ एक कॉलेज मैच के टाई होने के बाद, वो एक विपक्षी खिलाड़ी से भिड़ गए, जहां उन्हें जबड़े में भयानक चोट लगी। अप्रभावित, अओ ने उठकर, विपक्षी खिलाड़ी की मदद की, जिसने उनके जबड़े को तोड़ा था, अपने पैरों पर खड़े हुए और चले गए। चोट गंभीर थी और अओ एक महीने के लिए अस्पताल में भर्ती हो गए। वो लगभग एक साल तक फुटबॉल नहीं खेल पाए। इस घटना ने अओ के खेल कौशल को प्रभावित किया।

अओ को फुटबॉल के मैदान पर उनके खेल कौशल और शानदार प्रदर्शन के लिए जाना जाता था। वह एक मजबूत इच्छाशक्ति वाले एथलीट थे, जो हमेशा जीत के लिए बेक़रार रहते थे। अगर कोई भी उनकी सज्जनता को कमजोरी के रूप में लेता, तो वो बहुत बड़ी गलती करता था।

मोहन बागान और भारतीय फुटबॉल टीम

टी. अओ की ऊंचाई औसत से थोड़ी अधिक थी, पांच फीट दस इंच ऊंचे थे। अओ की प्रतिभा का शोर जल्द ही कोलकाता पहुंच गया – जिसे भारतीय फुटबॉल का मक्का कहा जाता है। अओ 1943 में कोलकाता के मोहन बागान के साथ जुड़ गए और एक साल के भीतर ही क्लब के कप्तान बन गए। अओ के नेतृत्व में, मोहन बागान की शानदार डिफेंस की वजह से उसका दूसरा नाम ‘ग्रेट वॉल ऑफ चीन’ का नाम पड़ गया। अओ ने पश्चिम बंगाल में मोहन बागान के साथ बाकी करियर का समय बिताया। इस टीम ने दो आइ.एफ.ए शील्ड, तीन कलकत्ता लीग और कई अन्य खिताब जीते। वे मोहन बागान के लिए 1943 से 1952 तक जुड़े रहे। उन्होंने अपने खेल कौशल से मोहन बागान को नयी ऊंचाई पर पहुंचाया। मोहन बागान ने उन्हें 2002 में मोहन बागान रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया और उन्हें आजीवन सदस्यता प्रदान की।

2002 में अओ को मोहन बागान रत्न से सम्मानित किया गया

उन्हें जल्द ही 1948 के ग्रीष्मकालीन ओलंपिक खेलों के लिए भारतीय फुटबॉल टीम का कप्तान चुना गया। साथ ही वे ओलंपिक में आजादी भारत के भारतीय दल के प्रथम ध्वजवाहक भी रहे।

ओलंपिक में अओ, आजाद भारत के, भारतीय दल के प्रथम ध्वजवाहक थे

लंदन ओलिंपिक में मैच नहीं जीतने पर भी भारतीय टीम चर्चा में रही क्योंकि वे नंगे पांव फुटबॉल खेल रहे थे। भारतीय फुटबॉल टीम ने 1948 के ओलंपिक में बिना बूट पहने खेला था। इस पर एक अंग्रेज पत्रकार ने उनसे पूछा कि- “वे बूट पहनकर क्यों नहीं खेलते हैं?” इस पर अओ ने अंगरेज पत्रकार को मुंहतोड़ जवाब दिया कि, “हम नंगे पांव इसलिए खेलते हैं क्योंकि हम फुटबॉल खेलते हैं, बूटबॉल नहीं।” अंग्रेज पत्रकार उसके इस जवाब से अवाक रह गये। भारतीय टीम बिना बूट के खेली और मैच हार गई, भारत 1 – 2 फ्रांस। लंदन में एक युवा टीम का नेतृत्व कर रहे थे, जिसमें बहुत कम ऐसे खिलाड़ी थे, जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले थे। ऐसे में एओ एक देश के राजदूत की भूमिका निभा रहे थे, जिसने सदियों से शासन करने वाली औपनिवेशिक शक्तियों से स्वतंत्रता हासिल की थी।

1948 लंदन ओलंपिक में भारतीय टीम

उनके खेल से प्रभावित होकर ‘आर्सेनल’ जैसी क्लब से खेलने का प्रस्ताव भी मिला था। लेकिन, उन्होंने अपने देश, अपने लोगों के बीच लौटना उचित समझा और आर्सेनल का प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्हें अपने पिता से किया गया वादा याद था कि- उन्हें डॉक्टर बनकर, अपने लोगों की सेवा करनी है। उन्होंने एक अच्छे बेटे होने का फर्ज भी निभाया। ओलंपिक के बाद, तालीमेरेन एओ ने इंग्लैंड, नीदरलैंड, वेल्स और आयरलैंड में कई प्रदर्शनी मैचों में भारतीय फुटबॉल टीम का नेतृत्व किया। दौरे का मुख्य आकर्षण डच दिग्गज अजाक्स पर 5-2 की प्रसिद्ध जीत थी।

मैदान के अंदर-बाहर कप्तान का रिकॉर्ड

एक कठिन सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य के बीच, तालीमेरेन अओ ने सुनिश्चित किया कि टीम को जब भी किसी चीज की जरूरत होगी वो खड़े मिलेंगे। उदाहरण के लिए, फ्रांस के खिलाफ अपने मैच से पहले, भारतीय फुटबॉल टीम ने इंग्लिश क्लब टीमों के खिलाफ लंदन में कई तैयारी मैच खेले। इनमें से एक क्लब के प्रबंधक ने प्रेस को बताया कि अगर भारतीय उनकी टीम को हरा सकते हैं, तो वो अपना पद छोड़ देंगे। भारत ने मैच जीत लिया। मैच समाप्त होने के बाद उनकी प्रतिक्रिया के लिए पूछे जाने पर, अओ ने जोर देकर कहा कि वो तब तक बोलने नहीं जा रहे हैं जब तक कि क्लब प्रबंधक अपने शब्द वापस नहीं लेते। ये सब निश्चित रूप से हंसी-मजाक की बात थी!

वे विलक्षण खिलाड़ी थे

इसका उदाहरण इससे भी जाना जा सकता कि वर्ष 1950 में डूरंड फुटबॉल का फाइनल मैच हैदराबाद सिटी पुलिस के साथ हो रहा था। खेल के दौरान उनके गोलकीपर घायल हो गये। उस समय स्थानापन्न खिलाड़ी को खेलने देने की अनुमति नहीं थी। अतः खेल के बचे समय के लिए अओ ने गोलकीपिंग की।

तलीमेरेन अओ ने 1952 में फुटबॉल से संन्यास ले लिया, तब वो अपने खेल के चरम पर थे। उन्होंने खुद से कुछ वादा किया।

डॉक्टर तलिमेरेन अओ: जिन्होंने अपना वादा किया पूरा

किशोरावस्था में अओ ने टाइफाइड की वजह से अपने पिता को खो दिया। उनकी मृत्यु के समय, उन्होंने अपने बेटे को डॉक्टर बनने और अपने लोगों की सेवा करने के लिए कहा।

1950 में, जब वो मोहन बागान और भारत के लिए खेल रहे थे, अओ ने कोलकाता में प्रसिद्ध कारमाइकल मेडिकल कॉलेज (वर्तमान में आरजी कर मेडिकल कॉलेज) से डॉक्टर बनने के लिए आवश्यक एमबीबीएस की डिग्री – एक स्नातक की डिग्री हासिल की। वो एमबीबीएस की डिग्री पाने वाले पहले नागा थे। उनके पास भौतिकी में बी.एस.सी की डिग्री भी थी।

तत्कालीन कारमाइकल मेडिकल कॉलेज के ओलंपिक में भाग लेने वाले स्टूडेंट्स

अओ ने अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई जारी रखने के लिए आर्सेनल के लिए खेलने की पेशकश को ठुकरा दिया। हालांकि फुटबॉल ही उनका जीवन था और वो एक ऐसा व्यक्ति थे जो ‘प्रतिबद्धता’ शब्द का अर्थ जानते थे। वर्ष 1951 में बीमार पड़े। क्लब ने चिकित्सा सुविधा के लिए उन्हें विदेश भेजने की व्यवस्था की तो अओ ने इन्कार कर दिया और अपना इलाज खुद किया क्योंकि वे स्वयं डॉक्टर थे।

फुटबॉल से रिटायमेंट लेने के बाद वे नगालैंड लौटे और कोहिमा सिविल हॉस्पिटल में असिस्टेंट सिविल सर्जन के रूप में अपनी नौकरी शुरू की। उन्हें रोना अस्पताल में चिकित्सा अधीक्षक नियुक्त किया गया। वहीं उनकी मुलाकात नर्स डिकिम डोंगेल से हुई, जिसे अओ ने अपना जीवनसाथी बनाया। वे सिविल सर्जन भी बने और 1963 में नागालैंड को राज्य का दर्जा मिलने के बाद, अओ स्वास्थ्य सेवाओं के राज्य के पहले निदेशक बने और 1978 में अपनी रिटायरमेंट तक इस पद पर रहे।

टी. अओ एक अच्छे फुटबॉल खिलाड़ी के अलावा नेक डॉक्टर भी थे। उन्होंने चिकित्सा करने में कभी किसी से भेदभाव नहीं किया जिसके कारण कुछ लोगों ने उन पर उंगलियां भी उठायीं। दरअसल, 1963 में नगालैंड गठन के पूर्व उनके पास घायल भारतीय सैनिक और अंडरग्राउंड नगा विद्रोही भी इलाज के लिए आते थे। लोगों ने उनसे पूछा कि- “आप इन अंडरग्राउंड लोगों की चिकित्सा क्यों करते हैं?” तो उनका उत्तर था – “मैंने डॉक्टर बनते समय शपथ ली है कि मैं हर जरूरतमंद रोगी, घायल का इलाज करूंगा। इलाज के लिए मेरे पास आया हर इंसान एक मरीज है। और मैं नहीं जानता कि वे ‘अपरग्राउंड’ से हैं या ‘अंडरग्राउंड’ से।” ऐसे थे हमारे ओलिंपिक में फुटबॉल के पहले भारतीय कप्तान।

तलीमेरेन अओ का 13 सितंबर, 1998 को 80 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें दिमापुर के खेरमहल में नागा कब्रिस्तान में दफनाया गया था।

उत्तर-पूर्व में मूक फुटबॉल क्रांति में अओ की उपलब्धियों की शुरुआत हुई, जिसे अक्सर आधुनिक भारतीय फुटबॉल की नर्सरी माना जाता है। अओ की विरासत अभी भी जारी है। भारत सरकार ने में तालीमेरेन एओ के सम्मान में एक पोस्टस्टैम्प जारी किया।

जोहार

स्रोत और संदर्भ

  • https://www.espn.in/football/story/_/id/17899572/doctor-pioneer-footballer-leader-remarkable-story-talimeren-ao
  • https://olympics.com/en/news/first-captain-indian-football-team-talimeren-ao
  • https://m.facebook.com/EastMojo/posts/2595500644089072/?locale=hi_IN&_rdr
  • https://nagalandpost.com/index.php/dr-t-ao-remembered-on-his-death-anniversary/
  • https://amp.scroll.in/article/698650/remembering-a-naga-doctor-footballer-who-led-india-in-the-1948-olympics
  • https://youtu.be/p15wMXvBEqI

संग्लक – https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=pfbid0iHQvy6nujMjU2mkEAaCikb5RENHYyhAq9jZpFUEeu18LLrsXkHx6BTCN2zaAUPHPl&id=100010628048871&mibextid=Nif5oz

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *