एक भूला हुआ महान इतिहास,1857 की क्रांति का पहला विद्रोह – “रामजी गोंड मर्सकोले”

रणजी गोंड उस नेता का नाम है जिसे समय भूल गया और इतिहास ने पहचाना नहीं। वह तेलंगाना के प्रथम शहीद स्वतंत्रता सेनानी हैं। 17 सितंबर.. मुक्ति, मुक्ति विलय दिन। हर कोई उस दिन का जश्न मनाएगा जब तेलंगाना को आजादी मिली थी। क्या आप जानते हैं कि हम जंगल के बच्चे आखिरी सांस तक क्यों लड़े। निर्मल की धरती पर रणजी गोंड की मूर्ति चिल्ला रही है, ”जरंत मिरान्ना।” रणजी कौन है? क्यों उन हज़ारों लोगों ने अपनी जान दे दी.. ये सब कहाँ हुआ, इस सवाल का जवाब चाहिए तो इतिहास की ये कहानी पढ़नी होगी।

बहुत से लोग नहीं जानते हैं कि यह जलियांवाला बाग नरसंहार से सालों पहले यहां इससे भी बुरी घटना घटी थी। एक बरगद के पेड़ पर एक हजार आदिवासियों को फांसी दी गई थी। इससे पहले आदिवासियों द्वारा की गई वीरतापूर्ण लड़ाई को याद कर आंखों में आंसू आ जाते हैं।

एक महान राजा और स्वतंत्रता सेनानी के बारे में। एक ऐसा जननायक जिसके बारे में कहा जाता है कि सही मायनों में स्वतंत्रता संग्राम का आगाज इन्होंने किया था। रणजी गोंड के विद्रोह को भारत में अंग्रेजों के खिलाफ पहला विद्रोह कहा जाता है। 1857 में सिपाही विद्रोह के रूप में जब अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के व पहले युद्ध की शुरुआत हुई थी, तब उत्तरी गोदावरी क्षेत्र का आदिवासी बहुल इलाका रणजी गोंड के नेतृत्व में हैदराबाद के निजाम तथा ब्रिटिशों के खिलाफ विद्रोह कर चुका था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आदिवासी ही ‘स्वतंत्रता’ के लिए सबसे पहले लड़े थे।

राजा रणजी गोंड मर्सकोले जी का जन्म कब हुआ इसकी कोई खास जानकारी मौजूद नहीं है। राजा रणजी गोंड जी का जन्म भारत का वर्तमान मे निर्मित राज्य तेलंगाना के “आसिफाबाद के निर्मल तालुका” मे हुआ था। रामजी गोंड, एक आदिलाबाद के गोंड शासक थे। जिनका साम्राज्य वर्तमान तेलंगाना के अदिलाबाद, निर्मल, उट्नूर, चेन्नुरू, असिफाबाद और बस्तर के कुछ क्षेत्र तक इनका अधिकार था। भारत में 1860 तक, संयुक्त आदिलाबाद जिला गोंडवाना क्षेत्र का एक हिस्सा था।

रामजी गोंड का शासन क्षेत्र

गोंड, एक शासक समुदाय होने के नाते, औपनिवेशिक शासन की वन और राजस्व नीतियों पर प्रतिक्रिया करने में थोड़े धीमे थे, हालांकि उनकी प्रशासनिक व्यवस्था पर मराठों के हमले और उसके बाद लगाए गए भूमि अलगाव के कारण वे अधिक वंचित थे। हैदराबाद के निजाम आसफ जाही और ब्रिटिश हूकूमत, गोंड साम्राज्य पर कब्जा करना चाहते थे। गोंड बहुत आक्रामक व स्वाभिमानी होने के कारण ऐसा कोई मौका नहीं दिया। रणजी ने ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ हथियार उठा लिए। उसकी सेना, जिसमें गोंड, कोलम और रोहिल्ला सैनिक शामिल थे। विद्रोह मुख्य रूप से आसिफाबाद में हुआ था। यह मुख्य रूप से गोंड, कोलम और कोया आदिवासियों का क्षेत्र है। हालाँकि, 1857 से आदिवासियों का संघर्ष स्वशासन की उनकी आकांक्षा, शाही ताकतों द्वारा शोषण के खिलाफ अपने जंगलों की सुरक्षा, गुलामी के खिलाफ उनकी अवज्ञा, और उनकी संस्कृति, परंपराओं और उनकी पहचान की रक्षा के लिए उनके अस्तित्वगत कर्तव्य के बारे में था।

गोंडों का शासन समाप्त होने और अंग्रेजों और निजाम का शासन शुरू होने के बाद उस समय के शासकों ने आदिवासियों पर भी अत्याचार किया। जंगम (आसिफाबाद) को केंद्र बनाने वाले रणजी मर्सकोले ने जंगलों में घुसकर आदिवासियों के अस्तित्व को संदिग्ध बनाने वाली अंग्रेजी और निजाम सेना के खिलाफ संघर्ष शुरू कर दिया। रंणजी गोंड इस क्षेत्र की ओर यह जानने के बाद आया कि निर्मल में स्थित अंग्रेज कलेक्टर निज़ाम की सेना के साथ जंगलों और आदिवासियों पर अत्याचार कर रहा था। आदिवासी स्वतंत्रता संग्राम के संबंध में तेलंगाना एक महत्वपूर्ण क्षेत्र था। 1857 की शुरुआत में, जब सिपाही विद्रोह हुआ, गोदावरी के उत्तर में आदिवासी इलाके हैदराबाद राज्य के तत्कालीन शासकों – निजाम और ब्रिटिश रेजिडेंट के खिलाफ रणजी गोंड के नेतृत्व में विद्रोही थे। रणजी गोंड ने 1860 में रोहिला सरदारों की मदद से आदिलाबाद जिले के निर्मल में ब्रिटिश सैनिकों पर हमला किया।

हैदराबाद के निजाम को दी थी शिकस्त

राजा रणजी गोंड से जुड़ा यह किस्सा काफी दिलचस्प है। हैदराबाद के निजाम आसफ जहा पंचम को अपने राज्य का विस्तार करना था। अपने राज्य के विस्तार के लिए निजाम की बुरी नजर गोंड राज्य पर थी। निजाम, राजा रणजी गोंड को युद्ध मे हरा कर उनके राज्य को अपने राज्य में विलीन करना चाहता था और इसके लिए वह अपनी सेना को तयार करने लगा। लेकिन यह खबर राजा रणजी गोंड को पता चली और उन्होंने भी खतरे की आशंका को भाँपकर अपने भी सेना को तयार करने लगे। राजा रणजी गोंड ने भी अपनी सेना को गुरिल्ला युद्ध नीति मे काफी पारंगत किया। अपनी सेना को बढ़ाया और भी कई सारे बदलाव उन्होंने किए।

आखिरकार वह दिन आ ही गया। निजाम ने अपनी सेना के साथ पूरी ताकत से गोंड राज्य पर हमला किया। रणजी गोंड ने इस विस्तारवाद का विरोध किया और जवाबी कार्रवाई मे राजा रणजी गोंड ने भी पूरी ताकत के साथ निजाम के सेना पर धावा बोला।  और अपनी हजार से भी ज्यादा क्षमता वाली गोंड सेना जो गुरिल्ला युद्ध में पारंगत थी, ने इस युद्ध में निजाम को बुरी तरह से हराया।

अंग्रेजों को भी दी थी एक बार शिकस्त

1857 तक देश के कई सारे राजाओं के संस्थानों को अंग्रेजों ने छल कपट से अपने राज्य में विलीन कर लिया था। तो कई राजाओं को अपना मांडलिक बना दिया था। 1857 तक भारत के कई सारे राजा केवल गद्दी के राजा बन कर रह गए थे। उनके राज्य के कारभार का पुरा नियंत्रण अंग्रेजों के पास मे था।

अंग्रेज आदिलाबाद के गोंड राज्य के राजा रणजी गोंड को भी अपना मंडलिक बनाना चाहते थे। वे नही चाहते थे कि, ब्रिटिश भारत में उनका एक स्वतंत्र राज्य रहे। लेकिन राजा रणजी गोंड एक स्वाभिमानी राजा थे। वे भारत अपना स्वतंत्र राज्य रखना चाहते थे। अंग्रेजों ने काफी कोशिशे की। उन्हे अपने तरफ खीचने की, उन्हे झुकाने की। लेकिन गोंड राज्य के राजा रंणजी गोंड नही झुके।

जब अंग्रेजों को लगा कि, राजा ऐसे झुकने वालों मे से नही है। तो अंग्रेजों ने अपनी सेना को गोंड राज्य पर आक्रमण करने को कहा। जिसके बाद अंग्रेजों की सेना और गोंड राज्य की सेना के बीच एक जोरदार झड़प हुई। राजा रणजी गोंड और उनके सेना ने गुरिल्ला युद्ध नीति को बड़े ही सोच समझ कर इस झड़प में इस्तेमाल किया अंग्रेज सेना को बुरी तरह से हरा दिया।

लेकिन हार मिलने के बाद भी अंग्रेज सरकार चुप नही बैठी। उनकी सेना को राजा रणजी गोंड के सेना ने जिस तरह हरा दिया था। उसका सबक लेकर अंग्रेजों ने सीधे युद्ध के बजाय नया रास्ता अपनाया। क्योंकि अंग्रेजों को सबक मिल चुका था कि, वे गोंड राज्य को सीधे युद्ध से नही जीत सकते।

इसके बाद अंग्रेजों ने अपने सैनिकों को अवैध रूप से गोंड राज्य दाखिल करके राज्य को हथियाने की साजिश रची। लेकिन अंग्रेजों की यह चाल नाकाम हुई। राजा रणजी गोंड ने अंग्रेजों के उन सभी सैनिको को पकड़ लिया जो राज्य में बिना इजाजत के घुसे थे। कहा जाता है कि, जिन सैनिको को राजा ने पकडा था जो राज्य में बिना इजाजत के घुसे थे। उन सभी को राजा रणजी गोंड ने मौत के घाट उतार दिया था।

रोहिल्ला के साथ

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु के बाद, नानासाहेब पेशवा, तांट्या टोपे और रावसाहेब अपनी सेना के साथ अलग हो गए। रोहिल्ला सिपाही जो तांट्या टोपे के अनुयायी थे, महाराष्ट्र के औरंगाबाद, बीदर, परबानी, तेलंगाना के आदिलाबाद और निर्मल में चले गए। उन्होंने अजंता, बसमत, लातूर, मखताल और निर्मल को अपने संघर्ष का केंद्र बनाया।

जिले में ऐसे कई स्थान थे जहां हिंसक ब्रिटिश विरोधी भावनाएं मौजूद थीं। विद्रोहों में से, आदिलाबाद जिले के लिए प्रासंगिक रोहिल्ला थे। यह विद्रोह उत्तर में होने वाली घटनाओं के साथ सिंक्रनाइज़ किया गया था। कई सैनिक, मुख्य रूप से रोहिल्ला, जो उत्तर में सैन्य सेवा से भंग कर दिए गए थे, ने दक्कन में घुसपैठ की। वे जल्द ही रणजी गोंड के नेतृत्व में जुड़ गए।

2 वर्षों तक प्रभावी गुरिल्ला युद्ध

प्रारंभ में, रणजी गोंड पश्चिम में निर्मल-नारायणखेड़ और दक्षिण में गोदावरी नदी की सीमा के पूर्व में चेन्नूर से फैले बड़े वन क्षेत्रों में दो साल से अधिक समय तक अपनी छापामार युद्ध तकनीकों के साथ सफल रहे।

निर्मल क्षेत्र में रोहिल्लाओं के नेता सरदार हाजी से मिलने वाले रणजी ने अंग्रेजी और निजाम सेना पर हमला किया, जो आम दुश्मन थे। हालाँकि उसके पास उचित हथियार नहीं थे, निर्मल ने पास की सह्याद्री पहाड़ियों और जंगलों को धमकी दी। निर्मल कलेक्टर के अधीन निजाम की सेना ने हमला किया और उन्हें क्षतिग्रस्त कर दिया। यह मामला कलेक्टर के माध्यम से तत्कालीन शासक अफजल उद्दौला, उनके हैदराबाद राज्य में रहने वाले डेविडसन के संज्ञान में आया। दमन के लिए बेल्लारी बल पहली लड़ाई की निरंतरता के रूप में, शासकों ने रणजी के केंद्र के रूप में निर्मल के नेतृत्व में शुरू हुए संघर्ष को गंभीरता से लिया।

इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार अपने मंसूबों पर पानी फैरता देख काफी हताश हुई। विद्रोह को दबाने के लिए, बेल्लारी में 47वीं राष्ट्रीय इन्फैंट्री लेकर आए। बाद में उन्होंने गोंड राज्य को हड़पने के लिए और राजा रणजी गोंड को अपने वश मे करने के लिए एक नए अधिकारी की नियुक्ति की। जिसका नाम था “कर्नल रॉबर्ट”। ब्रिटिश सरकार ने गोंड राज्य के विलीनीकरण सारी जिम्मेदारी कर्नल रॉबर्ट को दी। चिन्नूर के थानेदार फतेह अली खान को अदिलाबाद के थानेदार की सहायता के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था। ब्रिटिश सेना के हार से कर्नल रॉबर्ट भी अच्छे से परिचित था। ‘हिंगोली’ में कर्नल रॉबर्ट्स के अधीन सहायक बल की एक टुकड़ी को तैनात करने सहित आकस्मिक सैनिकों के मार्चिंग सहित उपाय किए गए। कर्नल रॉबर्ट की कमान में इस बल को रणजी सेना ने हरा दिया क्योंकि यह यहाँ के अधिक क्षेत्र पर कब्जा करने में सक्षम नहीं था। ये सभी आधुनिक हथियारों के साथ आए और रणजी गोंड सेना पर हमला किया लेकिन आदिवासी योद्धाओं ने उन्हें दो बार हरा दिया। लगभग तीन वर्ष तक रणजी गोंड अपनी विलक्षण प्रतिभा और गुरिल्ला युद्ध नीति से, यानी 1860 ई. तक, रोहिल्ला और गोंडों का यह विद्रोह जारी रहा।

निर्मल में अंतिम युद्ध

सुबह 8 अप्रैल 1860 को कलेक्टर को सूचना मिली कि  रणजी गोंड और उनके अनुयायी निर्मल के पास हैं। उन्होंने सड़क से 15 कुरोह (निर्मल से) और चार कुरोह की दूरी पर एक पहाड़ के पास शरण ली है। जिस स्थान पर दुश्मन ने डेरा डाला था, वह आसानी से सुलभ नहीं था। स्थिति यह थी कि दो व्यक्ति मुश्किल से एक साथ से गुजर सकते थे और यहां तक ​​कि भोजन और पानी जैसी दैनिक आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं थीं। निष्ठा की भावना के साथ, वह (कलेक्टर) आगे बढ़े। अनकही कठिनाइयों का सामना करते हुए वह आया जहां शत्रुतापूर्ण बलों को दोपहर के समय रखा गया था और उन पर हमला किया। पहले, कुछ समय के लिए गोलीबारी का किया गया, जिसके बाद तलवारबाजी हुई। मारे गए व्यक्तियों की संख्या दुश्मन के पक्ष का पता नहीं था। विद्रोहियों में लगभग 200 रोहिल्ला और 300 गोंड, कोलम शामिल थे। विद्रोही रोहिल्ला और अन्य के 30 शव मिले। उनके बल के कुछ जमादारों ने नारायणखेड़ से आए रोहिल्लाओं के एक प्रमुख मियां साहब खुर्द के शव की पहचान की। इस मुठभेड़ में गोंडों का एक सरखील, जिसका नाम पता नहीं था, भी मारा गया। बड़ी संख्या में विद्रोही घायल हुए थे।

रोहिल्लाओं के एक प्रमुख मियां साहब खुर्द के शव की पहचान की।

जहां तक ​​सरकारी पक्ष के हताहतों का संबंध है, दूसरे जिलादार, वारंगल के बल से संबंधित एक सिख और निर्मल में तैनात सैफ-उद-दौला के समूह से संबंधित एक अरब को गोंड और रोहिल्ला क्रांतिकारियों ने गोली मार दी थी। सिख सेना का एक दफेदार, एक अरब, दो सिंधी जवान और एक अन्य नौकर घायल हो गए। नौकरी पाने की उम्मीद में कलेक्टर के जत्थे के साथ गया गुलाम अली खान नाम का एक सोवर भी मारा गया। जत्थे को हाजी अली नुसरत का घोड़ा मिला, जो घाव के कारण घोड़े से नीचे गिरकर भाग निकला। हालांकि कलेक्टर की सेना विद्रोहियों को घेरने में सफल रही, लेकिन उनके सरदार रणजी बच निकले।

इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार अपने मंसूबों पर पानी फिरता देख काफी हताश हुई। 9 अप्रैल को पूरी तैयारी करके कर्नल रॉबर्ट ने निर्मल शहर पर आक्रमण कर दिया। रणजी गोंड अंग्रेजों के इस आक्रमण से बिलकुल बेखबर थे कि, ब्रिटिश सेना उन पर हमला करने वाली है। हमले से बेखबर राजा रणजी की गोंड सेना को ब्रिटिश सेना ने चारों तरफ से घेर लिया। अब उनके पास अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण के अलावा ओर कोई चारा ही नही बचा था।

ब्रिटिश कर्नल रॉबर्ट को लगा कि, अब राजा उनके सामने आत्मसमर्पण करेंगे। लेकिन ऐसा हुआ नही। रणजी गोंड ने चारों तरफ से घिरे हुए होते हुए भी, ब्रिटिश सेना के विरुद्ध मे हथियार उठाए और स्वाभिमान के साथ ब्रिटिश सेना के खिलाफ लगभग एक हजार रणबांकुरों को लेकर रणजी गोंड कर्नल रॉबर्ट की सेना पर टूट पड़े। उन्होंने कर्नल राबर्ट का सिर धड़ से अलग कर दिया। अंग्रेजों की फौज पीछे हटने लगी। तब तक बेलारी की सेना अंग्रेजों के पास पहुंच गई, निजाम की भी अतिरिक्त टुकड़ी आ पहुंची। ब्रिटिश सेना के सामने राजा रामजी गोंड ज्यादा देर तक टिक नहीं पाए और वे हार गए।

लेकिन सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह था कि, राजा रणजी गोंड और उनके 1,000 सिपाहीयो को ब्रिटिशों ने जिंदा पकड़ लिया गया। रणजी को ब्रिटिश न्यायाधीश के सामने ले जाया गया जहां अंग्रेजों ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई। फांसी की सजा उन्हें बरगद के नीचे ही सुनाई गई।

उसी दिन निर्मल उपनगर में एलापल्ली रोड पर मौजूद एक बरगद के पेड़ पर सभी गाँव वासियों के सामने घसीट कर ले जाया गया और रणजी मर्सकोले और उनके साथ 1,000 गोंड सैनिकों को फांसी पर लटका दिया गया।

ऐसा कहा जाता है कि, गोंड राज्य को ब्रिटिश भारत में विलीन करने के लिए कर्नल रॉबर्ट ने हैदराबाद के निजाम की सहायता ली थी और तो और निजाम ने भी अपने हार का बदला लेने के लिए कर्नल रॉबर्ट की सहायता की थी।

“वेयी पुररेला मारी” (‘नौजों का बरगद’)

जिस बरगद के पेड़ पर राजा रणजी गोंड और उनके 1,000 गोंड सैनिकों को फाँसी पर लटकाया गया था इसलिए इस बरगद के पेड़ को “वेयी पुरेला (खोपड़ी) चेट्टू” या “वेयी पुररेला मारी” के नाम से जाना जाता है। इसे आज भी हजार शाखाओं वाले बरगद के नाम से जाना जाता है।

इतिहास में गुमनाम रणजी गोंड और उनके 1 हजार सैनिक

रणजी गोंड ने अंग्रेजों-निजाम के खिलाफ महीनों तक आम सेना के साथ संघर्ष किया। 80 साल बाद जल-जंगल-जमीन के लिये लड़ने वाले कोमुरम भीम के लिए वे प्रेरणा बने। हालांकि तेलंगाना के 1,000 गोंडों को फांसी जलियांवाला बाग नरसंहार से ज्यादा क्रूर और पहले की घटना थी। पर आदिवासियों का यह बदिलान अचर्चित ही रहा। इतना संघर्ष करने वाले रणजी और अन्य वीरों के इतिहास को कम से कम पाठ्य पुस्तकों में शामिल नहीं किया गया है।

जल-जंगल-जमीन के लिये लड़ने वाले कोमुरम भीम के लिए रामजी गोंड प्रेरणा बने

जिला केंद्र में एक छोटी मूर्ति के अलावा कोई यादें नहीं हैं। वीरों की शहादत वाला पेड़ 1995 में आंधी के कारण जमीन पर गिर गया। जहाँ 14 नवंबर, 2007 को वेय्यी उरूला मर्री के पास एक स्तूप और 14 नवंबर, 2008 को चिंगेट, निर्मल में रणजी गोंड की एक मूर्ति बनाई गई। 5 साल पहले मोदी ने सरकार ने कहा था कि वह राज्य में रणजी गोंड के नाम से आदिवासी संग्रहालय बनाएगी, लेकिन अभी भी कोई कदम आगे नहीं बढ़ा है। उन शहीदों के वंशज अपने पूर्वजों को पहचान और इतिहास में जगह बनाने की उम्मीद लिए इंतजार कर रहे हैं।

जोहार
जय गोंडवाना🦁

संकलन और संपादन – सुधीर शेर शाह

संदर्भ एवं स्रोत

https://m.sakshi.com/amp/telugu-news/telangana/special-story-tribal-leader-ramji-gond-1485819

https://interestinghindiall.in/blog/ramji-gond/

https://en.m.wikipedia.org/wiki/Ramji_Gond

छायाचित्र

www.google.com/images

https://youtu.be/hLwHURK0cIQ

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