गोंड रानी फूलकुंवर बलिदान दिवस: 1857 की क्रांति की गुमनाम नायिका

रानी फूलकुंवर शाह

गोंडवाना के गढ़ मंडला साम्राज्य की रानी फूलकुंवर और मानकुंवरी का सन् 1857 की क्रांति में अप्रतिम शौर्य। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 में शहादत वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी की रही है। तदुपरांत महा महारथी गोंड महाराज श्रीयुत शंकर शाह की वीरांगना फूलकुंवर ने भी अंग्रेजों से युद्ध करते हुए प्राणोत्सर्ग किया।

वीरांगना का गौरवमयी इतिहास प्रस्तुत करने के पूर्व मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि जिस तरह इतिहास लेखन के दौरान महारथी गोंड राजा शंकर शाह और उनके सुपुत्र रघुनाथ शाह के साथ अन्याय हुआ है। उससे भी बड़ा अन्याय वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी और रानी फूलकंवर के साथ हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर लिखे गए इतिहास में तथाकथित महान इतिहासकारों ने उनके बारे एक पृष्ठ तो छोड़िये एक पंक्ति नहीं लिखी है।

रानी फूलकुँवर गढ़ा गोंडवाना के एक गोंड रियासतदार लोटन सिंह जगत की इकलौती पुत्री थी। फूलकुंवर में बचपन से ही वीरता, शौर्य और सैनिक प्रतिभा के गुण कूट-कूटकर भरे हुए थे। बचपन में ही उन्होंने घुड़सवारी, तैराकी, तीर कमान व तलवार चलाना तथा शिकार करने की कला सीख लिया था। रानी बहुत सुंदर और कुशाग्र बुद्धि की थी। रानी फूलकुंवर ने अपने घोड़े का नाम ‘चेैतन्य’ रखा था जो सफेद रंग का था, और रानी के गढ़ा के गोंड महाराज शंकर शाह के विवाह के बाद भी उनके साथ आ गया। राजा शंकर शाह और रानी फूलकुंवर ने अपनी कुलदेवी ‘मालादेवी‘ के भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया। रानी ने रघुनाथ शाह नामक पुत्र को जन्म दिया। महाराजा के साथ मिलकर रानी ने कई तालों का निर्माण करवाया था; सुपाताल, देवताल, गढ़ाताल, तथा संग्रामताल थे। रानी ने फूलसागर का भी निर्माण करवाया था।

सन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्थन जुटाने महाराजा शंकर शाह घूम-घूम कर देशी राजा, महाराजा और जमीदारों से संपर्क कर रहे थे। रानी फूलकुंवर भी कहाँ पीछे रहने वाली थी। वह भी अपनी बखरी में आस-पास की स्त्रियों को बुलवाकर सरकार से संघर्ष करने के लिए तैयार कर रही थी। यह बात बखरी से निकलकर आस-पास की ताल्लुकों, जागीरों तक पहुंची थी। वहां की स्वतन्त्रता प्रेमी युवतियां और स्त्रियां युद्धकला सीखने बखरी में आने लगी थीं। रानी स्त्रियों को घुड़सवारी और शस्त्र चलाने से लेकर मातृभूमि के लिए मारने मरने तक की सीख देती थी। वे अपने दल के सदस्यों को गोरिल्ला युद्ध, छद्मबेशी युद्ध के गुर सिखा कर उनका शारीरिक सामर्थ्य पढ़ाती थी तथा अनेक धार्मिक और ऐतिहासिक ग्रंथों के उदाहरण देकर स्त्रियों के मनोबल को बढ़ाती थी।

एक दिन रानी फूलकुंवर ठाकुराइनों को बखरी बुलवाया था। उसने कहा बहनों- समाज में आधी संख्या हमारी है। स्त्रियां हर क्षेत्र में ख्याति अर्जित करती आ रही है। स्त्री में ममता, वात्सल्य, स्नेह और सेवा के गुण विद्यमान हैं। प्राचीन नारियां विदुषी और धर्मनिष्ठ होने के साथ-साथ शूरवीर भी थी। स्त्रियों की शौर्यता और त्याग की बातें भारतीय इतिहास के ग्रथों में पढ़ने को मिलतीं है। स्त्रियां भी युद्ध भूमि में पीछे नहीं रही है। कुछ स्त्रियों ने तो स्वयं हथियार उठाए थे, तो कुछ ने अप्रत्यक्ष रूप से सैनिकों को धन व गहने भेंटकर मदद की थी।

रानी फूलकुंवर ने वीरांगना मेघावती, रानी दुर्गावती आदि वीरांगनाओं की शौर्यगाथा बताकर ठाकुराइनों से कहा बहनों- जिस प्रकार इन वीरांगनाओं ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने के लिए हथियार उठाए थे वैसे ही तुम्हें हथियार उठाना होगा। तुम्हें  घर, खेत, खलियान, धन-दौलत, संपत्ति की चिंता छोड़कर मातृभूमि की चिंता करना है। मातृभूमि सुरक्षित रहेगी, तब हम सुरक्षित रहेंगे। रानी ने बखरी में उपस्थित ठकुराइन को भारत की महान वीरांगनाओं के बलिदान और त्याग बताकर उनका अनुसरण करने के लिए कहा था। तत्पश्चात के सभी ठाकुराइनों को शस्त्रागार ले गई थी। शस्त्रागार का ताला बहुत सालों से खुला नहीं था। उसकी चाबी का अता-पता नहीं था। एक का टहलुवा से ताला तुड़वाया गया था। शस्त्रागार की किवाड़ खुलते ही चमगादड़ फड़फड़ाते निकल भागे थे। पूरा शस्त्रागार चूहों, चमगादरों के मलों की दुर्गंध से भरा था। मकड़ियों के जाले शस्त्रों को जकड़े हुए थे। शस्त्रों में धूल मिट्टी जमी हुई थी। लोहे के शस्त्र जंग (मोर्चा) से जूझ रहे थे। टहलुवे ने शस्त्रागार की सफाई की थी।

रानी फूलकुंवर ने वहां पड़े प्रत्येक शस्त्र के बारे में बताया था। वहां तलवार, फरसा, कुल्हाड़ा, तेगा, तोमर, कटारी, गुलेल, गोफान और बंदूकें थीं। एक कोने में लाठियों की रास लगी थी। सभी लाठिया टीके भर लंबाई की थी और उन सब में शामियां चढ़ी हुई थी। वहां उपस्थित सभी स्त्रियां जमीदारों, ताल्लुकेदारों के घरों की थी। उन सब के परिवार गोंड काल में सैन्य कार्य से जुड़े हुए थे। पुराने सैनिकों के प्रतिनिधि लड़ाई में नहीं जाते थे किंतु अपनी सुरक्षा के लिए औजार रखे हुए थे। सभी स्त्रियां औजारों से परिचित थी। शस्त्रागार के शस्त्र अनेक कालों के थे। उनकी बनावट और आकारों में विशिष्टता थी इस कारण स्त्रियों उन पर आकर्षित थीं। स्त्रियों  ने शस्त्रों को छू-छूकर और उठा-उठाकर देखा था। कुछ स्त्रियों ने अपनी साड़ी के छोर से उन पर चढ़ी हुई धूल को झड़ाया था।  जब सबने हथियारों को देख लिया तब रानी ने उनसे कहा- जिसको जो हथियार अच्छा लगा, उसे साथ ले जा सकती हैं। सभी स्त्रियां अपनी-अपनी  मनपसंद हथियार उठा ली थीं। कुछ स्त्रियां लाठी चलाना और पटा बनैठी भी जानतीं थी वे अपने साथ लाठी, बनैठी ले गई थी।

रानी के निर्देशन में स्त्रियां किले अंतःपुर में इकट्ठी होती थीं। रानी उन्हें स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाती हुई कहती थी – अंग्रेजी सेना यदि वीर पतियों को पीछे धकेलने में कामयाब रहती है तो हमें स्वयं को रण में कूदना पड़ सकता है। इसलिए तुम सब औजार एकत्र करती चलो। युवतियों में उत्साह था। उन्होंने रानी को बताया कि, उन्होंने तलवारें, खुखरियाँ, बघनखे, बरछी, कुल्हाड़ी और तिरकमानें एकत्र कर ली हैं। रानी उनमें और जोश भरती हुईं बोली– धन्यवाद! हम सभी वीरांगनायें समय आने पर इन हथियारों का उपयोग करेंगे। बताया जाता है जब रानी मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए स्त्रियों में जाग्रति लाने भाषण देती थी तो उसकी महिलावाहिनी की ही नहीं बल्कि बच्चियाँ, युवतियाँ और वृद्धाएं मुग्ध होकर सुनती रहती थी।

18 सितंबर 1857 को महाराजा शंकर शाह और युवराज रघुनाथ शाह मातृभूमि की रक्षा करते शहीद हो गए थे। अंग्रेजों ने क्रांति के विरोध में दोनों वीरों को तोप से उड़ा दिया। दूसरी तरफ रानी फूलकुंवर शंकर शाह के कहने पर अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तारी के समय एक बूढ़ी औरत का वेश बनाकर, एक कूड़े की टोकरी सिर पर रखकर भागने में सफल हो गयी थीं। तोप के बारूदी गोले की मार से पिता-पुत्र, दोनों के शव पूरे मैदान में बिखर गए थे। रानी फूलकुंवर ने किसी तरह अपने पति और बेटे की लाश के टुकड़ों को इकट्ठा किया और उन्हे नर्मदा के किनारे दफना कर अंग्रेजों से बदला लेने के लिए निकल पड़ी। राजा शंकर शाह और रघुनाथ शाह ने अंग्रेजों की दर्दनाक मौत को हंसते-हंसते स्वीकार कर लिया लेकिन अंग्रेजों के सामने झुकना पसंद नहीं किया। 1857 में हुई इस घटना के बाद पूरे गोंडवाना साम्राज्य में अंग्रेजो के खिलाफ बगावत शुरू हो गई। राजा शंकर शाह व रघुनाथ शाह के बलिदान ने लोगों के मन में अंग्रेजो के खिलाफ एक ऐसी चिंगारी को जन्म दे दिया जो बाद में शोला बन गई।

वीरांगना रानी फूलकुंवर पति और पुत्र के शहादत के बाद विद्रोह का नेतृत्व करने लगी थी। रानी ने नये सिरे से गोडवाने के वीरों एवं वीरांगनाओं की सेना संगठित की। रानी ने पहले अंग्रेजों के वफादारों, चापलूसों को अपना निशाना बनाया। अनेक गद्दारों को मौत के घाट उतार दिया। रानी को अनेक राजघरानों, जमींदारों और प्रभावी लोगों का साथ मिला। उन्हें शाहपुरा के ठाकुर विजय, नारायणपुर के ठाकुरों तथा रामगढ़ की रानी अंवतीबाई की सहायता प्राप्त हुई। उनके सहयोग में जबलपुर, मंडला, नरसिहपुर, दमोह, सिवनी आदि जिलों के गोंड और लोधी ताल्लुकेदारों की सेनाएँ लड़ रहीं थीं। रानी के पास पुरुष दल के अतिरिक्त महिला वाहिनी की वीरांगनाएँ भी थी, जिसमे गढ़ा, बरगी, बरेला, पनागर, नारायणपुर, कटंगी, मंडला, माडौगढ़, भानपुरगढ़ी, देवगांव, मधुपुरी, सिंगपुर, खैरी, घोघरी, शहपुरा, मोकास, पौंडी, फूलसागर आदि की गोंड वीरांगनाएँ थी। रानी और उसकी वीरांगनाएँ पुरुष वेश में युद्ध करतीं थीं।

अपनी संयुक्त सेना के दमपर उन्होंने शाहपुरा और सोहागपुर के थानों पर कब्जा कर लिया। पाटन, दमोह, सलीमनाबाद, बरेली, मंडला होते हुए, उस मार्ग में पड़ने वाली सभी अँग्रेज छावनियों को नष्ट किया। अंग्रेजों ने रामगढ़ किले पर अधिकार कर लिया था, मर्दाना भेष में रानी फूलकुंवर ने अपने वफादार सैनिकों के साथ रामगढ़ किले को अपने अधिकार में किया और कई स्थानों पर अंग्रेजों को पीछे धकेला। उन्होंने अंग्रेजी सेना के कई सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। 20 सितंबर 1857 को अंग्रेजी सेना को रानी फूलकुंवर को खदेड़ती हुई पचपेढ़ी, करौंदी से बरेला, बीजादांडी, भानपुर(नारायनगंज) में लड़ती हुई मंडला पहुंची। रानी फूलकुंवर मंडला के किले को अपने अधिकार में कर लिया। वह किले से युद्ध का संचालन करने लगी थीं। मंडला में उस समय रानी के साथ उसकी महिला वाहिनी की वीरांगनाओं के अतिरिक्त बघराजी, कुंडम, बरेला, बीजाडांडी, नारायनगंज के ही लड़ाकू थे। देवगांव, मधुपुरी, खैरी की सैकड़ों वीरांगनाएँ गुलवशों के नेतृत्व में रानी से आ मिली थीं। सभी पारंपरिक वेषभूषा में, हाथ में कुल्हाड़ी, उसी कुल्हाड़ी की बेंठ में छिवला के जड़ों से निकाली गई रस्सियाँ लिपटी हुईं थी। सभी के पास एक-एक धुतियाँ थी। मोकास के गोंड जमींदार ठाकुर खुमान सिंह मरावी भी अपने दीवान फत्ते सिंह मरावी के साथ रानी से जा मिले थे और उनके सेनापति बन गये। ठाकुर के पास घोघरी, शाहपुरा से लूटे हुये शस्त्र थे। रानी ने लूटे गए शस्त्रों को क्रांतिकारियों में बांट दिया था। खुमान सिंह और फत्ते सिंह के मिलने से रानी की सैन्य-शक्ति बढ़ गई थी। मंडला का किला क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था।

मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन ने विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक दल भेजे। पहला बड़ा संघर्ष 26 अक्टूबर को हुआ। संघर्ष बड़ा भीषण हुआ और रानी फूलकुंवर ने अँग्रेजों के सैनिकों को पीछे हटने को विवश कर दिया। ब्रिटिश सेना जान बचाकर भाग खड़ी हुई। दूसरी बार वाडिंगटन ने अधिक सैन्यबल से नवम्बर में आक्रमण किया, परन्तु वह पुन: पराजित हुआ। क्रांतिकारी पकड़ से बाहर थे। अंग्रेज़ अधिकारी अपना गुस्सा अपने ही अधीनस्थ भारतीय अधिकारियों पर उतारे थे। 23 नवंबर 1857 को लगभग चार-पांच सौ विद्रोहियों के साथ मंडला की पुलिस लड़ रही थी। अँग्रेजी सेना विद्रोहियों के मुक़ाबले में कम थी, वह टिक नहीं पाई भाग खड़ी हुई थी। क्रांतिकारी बेरोक टोक मंडला को लूटने ही वाले थे कि, मंडला के तत्कालीन तहसीलदार पंडित बाबूलाल ओझा के कारण लूट नहीं पाये थे।

अपने ‘चैतन्य’ घोड़े पर सवार रानी

फूलकुंवर जब अपने श्वेत रंग के घोड़े ‘चैतन्य’ पर चलती थीं, तो अंग्रेज उनसे घबराते थे। जिधर चैतन्य दौड़ पड़ता था, उस तरफ अँग्रेजी फौज में भगदड़ मच जाती थी। वह शत्रु सेना को रौंद डालती थीं। नवम्बर 1857 से मार्च 1858 तक रानी की तलवारों का कोई जवाब न था, अँग्रेजों के पास। अँग्रेजी सेना आती और बुरी तरह पीटकर, बच-बचाकर भाग जाती। रानी फूलकुंवर के नेतृत्व में संघर्ष सफलतापूर्वक चलता रहा। इस भीषण संघर्ष के बारे में मंडला के तत्कालीन डिप्टी सुपरिंटेन्डेन्ट जान हर्ट की पत्नी ओ.एस. क्राम्पटन ने लिखा कि महाराजा शंकर शाह की विधवा को दबाने के लिए ब्रिटिश सैनिकों को लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ा था।

अंग्रेज समझ गए थे कि छोटी सैन्य टुकड़ियों का रानी फूलकुंवर के सामने कोई महत्व नहीं था। अत: अंग्रेजों ने इसबार बड़ी तैयारी की। अंग्रेजों ने सागर और इलाहाबाद से और फौज बुला ली। 5 मार्च तारीख को नारायणगंज और मंडला के मध्य विद्रोहियों के झोपड़े जलाकर उन्हें बेघर किया गया और 6 तारीख को जबलपुर की दिशा में कालपी और कुड़ामैली के झोपड़े नष्ट कर दिये। 20 मार्च 1858 को किसी ने वाडिंगटन को बताया कि, विद्रोही मंडला के ईशान में खैरी से और दक्षिण में महाराजपुर से हमला करने वाले हैं। मार्च, 1858 में अँग्रेजों की 20 सैन्य टुकड़ियों ने एकत्र होकर आक्रमण किया।

फूल सागर – गढ़ मण्डला में, मदार्ना भेष में रानी फूलकुंवर ने अपने सैनिकों के साथ रहगढ़ किले को अपने अधिकार में किया और कई स्थानों पर अंग्रेजों को पीछे धकेला। वहाँ रानी मोर्चा संभाले हुई थीं। वाडिंगटन की सेना और रानी की सेना के बीच जोरदार मुठभेड़ हुई थी। इस बार के युद्ध में भीषण संघर्ष तथा भयंकर रक्तपात के पश्चात अंग्रेजों का मंडला पर कब्जा हो गया। अंग्रेजों के पास सैन्य सहायता पाने का अवसर था, किन्तु रानी की नवनिर्मित सेना की सँख्या सीमित थी। कोई अन्य सैन्य सहायता की उम्मीद लेशमात्र भी न थी। किन्तु अपने सीमित संसाधनों के बाद भी रानी ने जो शौर्य दिखाया, वह अद्वितीय था, अनुपम था। रानी ने वाडिंगटन के तेरह घुड़सवार सैनिकों सहित दो अंग्रेज़ जमादारों को मौत के घाट उतार दिया था। दूसरी ओर उसके सहयोगी भी एक-एक कर मारे जा रहे थे। अंग्रेजों ने उनके घोड़े का पीछा किया और घेर लिया। रानी ने सरकार से 7 माह कड़ा संघर्ष किया था उसके पास कुछ ही सैनिक बचे थे, उनका पकड़ा जाना निश्चित था। अंत में जब वो घोड़े से गिर गयी और अंग्रेजों ने घेर लिया तब अपने को असुरक्षित जान रानी ने अपनी पूर्वजा महारानी दुर्गावती की भांति स्वयं को कटार मारकर खत्म कर लिया था। रानी के आत्म-बलिदान के बाद अफरा-तफरी मच गई थी। घायल अवस्था में उन्हें अंग्रेजों की छावनी में लाया गया जहां उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये। रानी फूलकुंवर का एक भाई भी था, जो एक युद्ध में मारा गया था।

इस तरह गढ़ मंडला में सैकड़ों साल बाद एक और इतिहास दोहराया गया। रानी दुर्गावती के बाद रानी फूलकुंवर दूसरी महिला थीं जिन्होंने अपनी आन बान और शान के लिए स्वयं अपनी जान ले ली लेकिन अंग्रेजों से हार स्वीकार नहीं की। आज भी रानी फूलकुंवर के किस्से और गीत मंडला और जबलपुर के आसपास सुने जाते हैं। वीरांगना रानी फूलकुंवर की समाधि लालीपुर (मंडला) में है। वहीं कुछ दूर दो अंग्रेज़ बहादुरों की समाधियाँ हैं जिन्हें रानी ने भारत की मिट्टी मे मिलाया था।

सम्पूर्ण क्रांती में इस क्षेत्र से महाराजा शंकर शाह, कुंवर रघुनाथ शाह, रानी अवन्ती बाई, रानी फुलकुंवर जैसे कई वीर-वीरांगनाओं ने अपना बलिदान दिया। गोंडवाना के अनगिनत शहीदों ने अपने खून से भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की अमर गाथा लिखी है। अपने अद्वितीय बलिदानों की परंपरा को कायम रखते हुए, उन्होंने पीढ़ियों को अपने देश के गौरव और महिमा के लिए मर मिटने के लिए प्रेरणा भी दिया है। लेकिन हैरानी की बात यह है इन वीर सपूतों को इतिहास के पन्नों में जो जगह मिलना चाहिए थी वह आज भी नहीं मिल पाई है। रानी फूलकुंवर के बारे में कोई नहीं जानता, न ही बलिदान दिवस कार्यक्रम का आयोजन होता, न वीरांगना के सम्मान में उनकी मूर्ति व भव्य स्मारक बना, न पाठ्य पुस्तकों में शामिल करने की कोशिश किया।

वीरांगना रानी फूलकुंवर एवं अन्य क्रांतिकारियों की अतिक्रमण के चपेट में समाधि स्थल

फूलसागर से लेकर लालीपुर, मंडला तक गोंडवाना साम्राज्य की महारानी फूल कुंवर शाह मरावी जी का गढ़ था। गढ़ मंडला के स्वतंत्रा सेनानी राजा शंकर शाह की पत्नी एवं रघुनाथ शाह की मां रानी फूलकुंवर, ठाकुर खुमान सिंह मरावी (गोंड) और सहयोगी का समाधि स्थल लालीपुल तालाब के बाजू में एक बहुत बड़ा बगीचा भी था, जो उसके अवशेष हैं। उस तालाब का क्षेत्रफल और बगीचा सहित लगभग 10  एकड़  का होगा। तालाब और बगीचा के बीचो बीच वहां पर कम से कम  7-8 समाधि (मकबरा) स्थल है जो की अतिक्रमण के चपेट पर है! सरकार इसे संरक्षित करने का काम करे।

जोहार गोंडवाना।

संदर्भ एवं स्रोत-

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