संविधान लागू होने के 63 बरस बाद आदिवासियों के लिये क्या है ‘गणतंत्र’ के मायने

आजादी के 75 साल बाद भी आज आदिवासियों की स्थिति क्यों नहीं बदली..

अशिक्षा

आजादी के 75 साल बाद भी आदिवासी क्षेत्रो में स्कूल तक नहीं है, न शिक्षक हैं। साथ ही जहाँ स्कूल हैं वहाँ पहुँचने तक की कठिनाइयों पर कोई ध्यान नहीं देता।

सबसे ज्यादा अगर स्कूल से ड्रॉप आउट रेट अगर होगा तो वह आदिवासी का है। बहचत बार जल-जंगल-जमीन की लड़ाई में छात्र पढाई पर ध्यान नही दे पाते और जहाँ ज्यादा जंगल और नैसर्गिग संसाधन है वहा का क्षेत्र मै कुछ ही लोग मिलेंगे हाईस्कूल से आगे पढ़ पाते हैं।

अब तो आदिवासी क्षात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्तियों को कम किया जा रहा और देने में इतनी आनाकानी कर दी जाती है कि छात्रों को शिक्षा छोड़नी पड़ती।

प्राइमरी लेवल से लेकर उच्च शिक्षा तक आदिवासियों का कोई ध्यान नहीं देता, यहाँ तक की देश भी नहीं।

गरीबी

आज भी आदिवासी इस देश के सबसे गरीब नागरिक हैं। उनके आर्थिक विकास पर ध्यान नहीं देते वरन विकास के नाम पर उन्हें और गरीब बना दिया जाता।

सोशल कैपिटल नही है और जो जमीने थी वो छीनी जा रहीं या परिस्थिती के अभावा बेची जा रहीं, जिसके चलते ठगना हुआ महसूस करना, दूसरो के खेत मे काम करना, मजदूरी करना और भी काफी परेशानीयों का सामना कर रहे।

हाल ही में नये जंगल अधिकार अधिनियम के बाद काफी क्षेत्रो में आदिवासियों की आय जो जंगल पर चलती थी वह बंद हो गई या फिर उन्हे न चाहकर भी काम के लिये स्थांतरित होना पड़ा। ऐसे परिस्थिती मै दो समय की रोटी मिले यही उनकी प्राथमिकता बन गई है। और यही से फिर गरीबी पनपती है।

बेरोजगारी

आप अगर देखोगे तो,आधे से ज्यादा आदिवासी खेती पर निर्भर है।
ज्यादा से ज्यादा आदिवासी क्षेत्र मै चावल उगता है और चावल का उत्पादन 4-5 महीनो का है! मतलब लगभग 8 महीने खेती का कुछ भी काम नही है और शिक्षा तो बहुतत कम है। कुछ प्रतिशत ही लोग है जिनके पास खेत और पानी का स्रोत है तो वह सब्जी और फल उगाते है और हाटुम मे बेचकर अपना निर्वाह करते है।

बिजनेस बहुत ही कम लोग करते है और यह करने के लिये गाइडेंस, संसाधन और बाजार में पैठ भी नही है।

सरकार भी अब नौकरियां देने में आनाकानी कर रही हैं। इसिलिये यह थोडा मुश्किल है और बेरोजगार बढ़ता जा रहा है।

स्वास्थ्य

आदिवासी क्षेत्रों में स्वास्थ्य की हालत बहुत खराब है! अस्पताल नहीं हैं, डॉक्टर नहीं, दवाइयां नहीं हैं। महिलाएं और बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, सरकार द्वारा उनके स्वास्थ्य के लिये कोई काम नहीं।

हाल ही में छत्तीसगढ़, ओडिशा जैसे आदिवासी बहुलता वाले क्षेत्रों में बच्चे कुपोषण से मर गये, आधार कार्ड न होने पर आदिवासियों को जरूरत का अनाज नहीं दिया गया।

आज भी अपने लोग मलेरिया से मर रहे है। उद्योगिकरण से काफी बदलाव हूआ और उसका सीधा असर आदिवासियों पर पड़ा है। उद्योगिकरण और खनन से प्रदूषण को बढ़ावा मिला जिस्से नये-नये रोग और विषाणू बने! इसका ज्यादा असर वहा के रहेने वाले लोगोपर पडा। आज भी आप देखोगे तो आदिवासी की रोग-प्रतिकार क्षमता बाकी लोगो से अच्छी है पर जब वह शहर आते है तो हवा और रहन-सहन के वजह से असर होता है।

लूट

ज्यादातर आदिवासी क्षेत्र में खनिज संपदा, पानी के बेहत स्रोत और जंगल की संपदा है और यही आज लूट का सबसे बड़ा कारण है। जो बाद में आदिवासियों के लिये कई मुश्किलें पैदा कर रहा है। आज इन संपदाओं को सरकार पूंजीपतियों के साथ मिलकर लूटने में लगी है।

चाहें वह छत्तीसगढ़ का हसदेव हो, राजस्थान का बांसवाड़ा, महाराष्ट्र का गढ़चिरौली हो, ओडिशा का मालीपर्बत या झारखंड का गोड्डा हो हर जगह लूट मची है। उसे आदिवासी जो इस देश के प्रथम निवासी हैं उनकी कोई चिंता नहीं है। जो यही लूट आदिवासी दमन, विस्थापिन, मौत आदि का कारण बनती है।

दमन

यही कारण बाद में आदिवासियों के दमन का करण बनती है। उन्हें तो आंदोलन भी नहीं करने दिया जाता। शांति से जीवन व्यतित कर रहे लोगों को जबरन उनकी जगहों से विकास के नाम पर हटा दिया जाता है। उनकी कोई सुनवाई नहीं होती तथाकथित विकास के नाम पर। इस कारण आदिवासियों की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है।

जातिवाद

जातिवाद का अगर देखा जाये तो यह तो हम मानते नही। हम न हिंदू और न ही वर्ण व्यवस्था के अंदर है। लेकिन आज यह देश और उसके गैर-आदिवासी दिकू लोग आदिवासियों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं।

गैर अनुसूची क्षेत्रों में तो शोषण होता ही था। अब आदिवासी क्षेत्रों में भी अब जहाँ जहाँ दिकू घुस आये हैं वहाँ भी जातिवाद शुरू हो गया है। जब आदिवासी पढ़-लिखकर आगे बढ़ता है वहाँ भी उसके साथ गलत व्यवहार होता है। फिर अब आदिवासी जाये तो जाये कहाँ ?

शोषण

यह तो हर जगह हो रहा है। देश के जितने भी आदिवासी है, हर प्रदेश, क्षेत्र में, कोई सुनवाई, कोई विकास नहीं, कोई पूछ नहीं। हर जगह शोषण। आखिर आदिवासी करे तो करे क्या?

जल-जंगल-जमीन

जल जंगल जमीन पहाड़ आदिवासियों का जीवन है। पर आज धीरे धीरे आदिवासियों के साथ इसे खत्म किया जा रहा। जो लड़ाई कोमुरम भीम ने लड़ी थी, आजाद भारत में उसे भूला दिया गया।

खुद का अस्तित्त्व सम्भालो और आदिवसियत को समझो। हमारे पुरखा की यह देन है और उसका संरक्षन करना हमारा ध्येय है, जिसको पुरा करने के लिये हमे कोई नयी विचारधारा की जरुरत नही पड़नी चाहिये।

विस्थापन

जो लूट है, उसका फल है विस्थापन। तथाकथित विकास के नाम पर, डैम बनाकर, तो पहाड़ो को तोड़कर, जंगलो को साफकर आदिवासियों को उनके निवास स्थान से हटा दिया जाता है। न तो घर बचता, न जमीन और न जीवन। इसके वजह से उन्हे बहुत सी मुस्किलो का सामना करना पड़ता है।

और सरकार न मुवावजा देती, न जमीन और न रोजगार। उन्हें उनके ही हालात पर छोड़ देती। क्या आदिवासियों का इस देश में अस्तित्व है कि नहीं?
इसको सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारा अशिक्षित रहना है और हम से ही कुछ जो राजनितिक जगह बैठकर दलाल बने है उनका है।

फर्जी एनकाउंटर

लूट का एक फल है फर्जी एनकाउंटर। जो विस्थापित नहीं होते या विद्रोह की कोशिश करते उनके साथ ऐसा ही होता है। और यह हम सिलगेर, एडसमेटा जैसे फर्जी एनकाउंटर देख भी चुके हैं।

कैसे आदिवासियों को रात में उठा लिया जाता और फिर सुबह नक्सली बनाकर खत्म कर दिया जाता। और ऐसी कई रिपोर्ट जो आदिवासियों की फर्जी मुठभेड़ पर हैं, वो पड़ी हुई हैं। जितना लिखा जाये उतना कम है।

नरसंहार

इसपर बोलने को पुरा दिन भी कम पडे़गा। कभी सरकार दमन तो कभी नक्सल दमन के नाम पर बीच में पड़े आदिवासियों का नरसंहार होता रहा है। यह तो दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद ही खरसावां में हजारों का नरसंहार हो गया, उसके बाद बस्तर में नरसंहार।

कैसे असंवैधानिक सलवा जुडूम, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी माना था, के नाम पर हजारो आदिवासियों को मार दिया गया, उनको विस्थापित होना पड़ा, महिलाओं के साथ रेप हुआ, जेलों में बंद कर दिया, गाँव के गाँव जला दिये गये। पूर्वोत्तर में कैसे बिना आदिवासियों के मुद्दे को समझे ही उनपर तरह तरह के अत्याचार हुये।हाल ही में जमीन की लूट के लिये दिकूओं तक ने सोनभद्र में आदिवासियों का नरसंहार किया। और ये सब हुआ एक गणतांत्रिक आजाद देश में।

जेल

आज भारत की जेलों में सबसे ज्यादा बंद हैं तो आदिवासी ही हैं। उसमें भी तकरीबन 10 प्रतिशत ही सजायाफ्ता हैं। बाकी का तो अंडरट्रायल हैं या केस भी शुरू नहीं हुआ और वह जेलों में सड़ रहे और न जाने कितने उन पर फर्जी केस होंगे। दमन करने के लिये फर्जी तरीकों से उन्हें जेलों में सालो तक ठूस दिया जाता है।

हाल ही में मध्यप्रदेश में एक आदिवासी को निर्दोष रिहा किया गया उस सजा के बाद जो उसने किया नहीं था। हिडमे मरकाम दीदी जोकि एक आदिवासी और पर्यावरण कार्यकर्ता हैं, उन्हें यूएपीए केस में बिना किसी सबूतों को जेल में बंद कर दिया गया ताकि आदिवासियों की आवाज दबा दिया जाये।

जेल में ज्यादा से ज्यादा वही लोगो को रखा ज्यादा है जो कुछ भी कानून नही जानते और जिनके पास संसाधन नही है।

नक्सलवाद

हम पहले भी कह चुके हैं कोई जरुरत नही किसी विचारधारा की। जल-जंगल-जमीन और आदिवसियत की यह हमारे पुरखा की देन है। सरकारी दमन की तरह नक्सलवाद भी आदिवासी दमन का कारण है।

लूट के नाम पर तथाकथित मसीहा बन रहे पर क्या उससे हमें क्या मिला, मर भी तो हमारे लोग ही हैं। नक्सलवाद से कितने जंगल बचे है? गढ़चिरौली जिसे उनका गढ़ माना जाता वहाँ एटापल्ली जो एक आदिवासी क्षेत्र है उसे खत्म कर दिया गया माइनिंग के नाम पर।

उनकी वजह से हमारे आदिवासियों का फर्जी एनकाउंटर होता। जो आदिवासी पढ़ना, नौकरी, बिजनेस करना चाहते उन्हें नहीं करने देते। जंगल भी काटे गये जहा नक्सल रह रहे है। यह एक दिन आदिवासीयत को नष्ट करेगा।

जल जंगल जमीन की लड़ाई हम नकस्लवाद से पहले से लड़ रहे। कोई कितना भी कह ले पर वह राज नहीं आ सकता। आपको सबसे पहले समझना होगा की कौन सी विचारधार आप पे थोपी है? आपको उस से क्या फायदा हुआ?

आरक्षण

आरक्षण का फायदा सिमित तौर ही आदिवासियों को मिला है। हमारी लड़ाई तो जल जंगल जमीन के साथ आरक्षण की भी हो रही। आजादी के इतने सालों तक तो कुछ समुदायों को महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, आसाम आदि जगह आरक्षण से ही वंचित होना पड़ा और आज भी यह लड़ाई तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में भी लड़ी जा रही।

इस लड़ाई में भी हमारा साथ देने वाला कोई नहीं है। सरकार भी न शिक्षा, न नौकरियों, न राजनैतिक आरक्षण दे रही जिससे आदिवासी समुदाय का विकास हो।

संवैधानिक अधिकार

क्या इस देश में आदिवासियों के पास संवैधानिक अधिकार है भी कि नहीं! अगर होता आदिवासी अशिक्षित, गरीब नहीं होता, उसका लूट, दमन, शोषण, विस्थापन, नरसंहार नहीं होता। आजादी के 75 साल बाद भी अपने अधिकारों के लिये दर दर भटक रहा।

पेसा कानुन से पहले सिर्फ 5और 6वी अनुसूचि ही थी जहा आदिवासी के लिये अधिकार थे और यही अनुसुची का संविधान मे कुछ जगह उल्लेख किया गया था; जैसे 19 (1)(e) मै बोला गया है की आप भारत के किसी भी जगह जा सक्ते है और रेह सक्ते है पर अगर वह अनुसुचित क्षेत्र है तो आपको वहा के प्रशासन और आदिवासी की आज्ञा लेना पडेगा।

ऐसे ही कूछ जगह उल्लेख था पर यह नार्थ इस्टर्न स्टेट मै ही ज्यादा तौर पर इन्फोर्स था पर इसको बाकी अनुसूचित क्षेत्र मै भी अब इन्फॉर्स कर सकते है। बाकी तो Rofra और PESA महत्वपूर्ण है। पर अभीतक राइट ऐण्ड रुचुअल पर कानून नही बने है जिस्से आदिवासी महिलाओ का शोषन हो रहा है।

सांस्कृतिक अतिक्रमण

आज आदिवासी सांस्कृतिक अतिक्रमण से जूझ रहा है। उसको धर्म के नाम पर बरगलाया जा रहा है। अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिये उनका धर्म परिवर्तन कराया जा रहा। न ही उनको पृथक धर्म कोड दिया जा रहा। इससे उनके पृथक आदिवासी सभ्यता को खत्म किया जा रहा। उनके धार्मिक स्थलों पर कब्जा किया जा रहा।

तथाकथित सभ्य समाज के अनुसार चीजे लिखीं जा रहीं। हमारे समाज के दलाल गुरुकुल को बढ़ावा देंगे पर खुद के समुदाय की गोटूल शिक्षा पद्धति पर एक शब्द नहीं बोलेंगे! कैसे मरांग बुरु उर्फ पारसनाथ पहाड़ पर कब्जे की कोशिश हुई। बस्तर में आदिवासी देव स्थलों पर कब्जा कर हिंदूकरण हुआ।

आदिवासियों आज अपने ही अस्तित्व, अपनी संस्कृति को बचाने के लिये चारो तरफ से लड़ रहा।

भाषा व कला

डर है सबको आदिवासी से। आजतक आदिवासी भाषाओं को संविधान की 8वीं अनुसूची में नहीं डाला गया। उनकी भाषाओं को खत्म किया जा रहा। पर इसी के साथ हमे भी अपनी भाषा भुलनी नही होगी और अपने आगे की पीढी को और सार्थक करना होगा।

हमारी कलाओं पर भी अतिक्रमण किया जा रहा। उस कला संस्कृति को दूसरी कहानी बताकर अतिक्रमण कर रहे। उसका बाजारीकरण कर दिया गया है। हमें लंबी लड़ाई लड़नी है। क्योंकि इसी बात का डर है की हम आखरी ना हो जो लड़ रहे हैं।

हूल जोहार

संदर्भ व स्रोत

  • google.com/images

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